मैंने फेसबुक से 6 माह की छुट्टी लेने की घोषणा की थी परन्तु कार्यकर्ताओं की दुहाई देकर बयान दिए जा रहे हैं इसलिए एक कार्यकर्ता होने के नाते अपना विचार फिर से रखना मेरा कर्तव्य हो जाता है।
जैसा की हमारे मित्र जानते हैं, मैं बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का भी हिस्सा था और अन्ना आन्दोलन का भी। इन दोनों के दिल्ली के रामलीला मैदान के आन्दोलन में भी भाग ले चुका हूँ और अपने जिले में भी कई धरना और अनशन कार्यक्रम आयोजित कर चुका हूँ। हमारा कोई राजनितिक उद्देश्य नहीं था, कोई गुप्त एजेंडा नहीं था। पर जब आन्दोलन के क्रम में राजनेता हमें चुनाव की चुनौती देने लगे तो एक अस्थाई राजनीतिक दल की स्थापना का सुझाव दिल्ली में "इंडिया अगेन्सट करपरशन" की एक बैठक में मैनें खुद दी थी परन्तु तब इस पर कोई सहमति नहीं बन पायी थी। आगे चल कर पार्टी बनाने का निर्णय हुआ और कुछ दिनों बाद नामकरण "आम आदमी पार्टी" रखा गया।
मिट्ठू भाईयों का संच और "ओछी राजनीति"
…………………………………………………………………………………
"आप" PAC से निकाले जाने के बाद योगेन्द्र जी टी॰वी॰ चैनलों पर इंटरव्यू देते चल रहे थे की वो तो सिर्फ 2 सालों से राजनीति में हैं। एक तरह से वे यह साबित करना चाह रहे थे कि वे "आप" में आकर राजनीति शास्त्र के किताब से इतर ओछी और गंदी राजनीति सिखे हैं। अपने को बहुत ही भोला - भाला और भलमानस दिखाने की कोशिश करते रहे। वे आंतरिक लोकतांत्रिक मुल्यों की भी बात करते देखे गए।
सच: - योगेंद्र जी 1983 से राजनीति में हैं तब वे "समता युवा जन सभा" जो की किशन पटनायक जी की पार्टी "समता संगठन" की छात्र संगठन ईकाई थी, के सदस्य थे। बाद में 1995 में यह पार्टी "समाजवादी जन परिषद" (सजप) बनी तब भी वे पहले दिन से ही इसके सदस्य और प्रमुख नीति निर्धारक थे।
जनाब अपने को चाणक्य कहलाने का शौक रखते हैं पर जब वे इतने काबिल थे तो "समाजवादी जन परिषद" में रहते हुए एक भी विधायक क्यों नहीं बना पाए। यह तथ्य उनके चाणक्य कहवाने को चुनौती देने के लिए काफी है। वे समाजवादी जन परिषद की नीतियों का बखान यहाँ भी करते हैं, पर वक्तव्य और व्यवहार, नीति और नियत में काफी फ़र्क है।
आन्दोलन के क्रम में वे "इंडिया अगेन्सट करपरशन" के संगठन से दूर थे क्योंकी मंच से नेताओं पर जमकर वार किया जाता था और वे भी एक नेता थे। भाषण के लिए वे आते थे जैसा की उन्होंने उपरोक्त इंटरव्यू में बताया भी है। उनकी आन्दोलन पर पैनी निगाह थी। जब उनको लगा की यह आन्दोलन राजनीतिक दल में परिणत होने वाली है तब उनकी सक्रियता बढ़ गई। इनके दल के कुछ लोग जो इनके करीब थे वे भी आन्दोलन में मेरे यहाँ भी आते थे। इससे यह साबित होता है की पूरी योजनाबद्ध तरीके से ये और इनकी पार्टी में इनके करीबी लोग आन्दोलन पर गिद्ध दृष्टि लगाए हुए थे। पार्टी बनने के बाद उनके एक खास साथी ने मुझे बताया था की योगेंद्र जी को पार्टी में आने की सलाह उन्होंने दी थी। पार्टी की घोषणा होने के बाद "सजप" के कई लोग मुझसे मिलने आने लगे जब मैनें उनके बारे में जानकारी हासिल करनी शुरु की तो पता चला की इनकी जनता में इमेज पहले से ही खराब हैं। इसके बाद मैनें आंदोलन के केंद्रीय वरिष्ठ साथियों को एस॰एम॰एस॰ किया की "किसी भी दल के व्यक्ति को व्यक्तिगत आधार पर पार्टी में लिया जाए पुरे दल को नहीं।" जिस दिन पार्टी का औपचारिक गठन हो रहा था उस दिन तथाकथित समाजवादी दिल्ली पहुँच गए थे, और सारे नेशनल कौंसिल के मेंबर और फाउन्डर मेंबर कहलाते हैं। हमारे जिले से भी "समाजवादी जन परिषद" के एक नेता नेशनल कौंसिल के मेंबर अपने को बताते चलते हैं पर पार्टी के स्थानीय आन्दोलनों, कार्यक्रमों और बैठकों में भाग नहीं लेते। आंदोलन के साथी पेशेवर राजनीतिज्ञ नहीं थे, उनको किनारे लगाने का काम इनलोगों ने शुरू कर दिया। इनके लोग उपलब्ध थे और वे जिला कमिटियों के गठन के लिए पर्वेक्षक भी बनाए गए। जिस लोकतंत्र की दुहाई ये लोग दे रहे हैं उसी लोकतंत्र की धज्जी उड़ाते हुए पार्टी के पद - पोस्ट पर अपने लोगों को बैठाना शुरू कर दिया गया। मेरे रोहतास जिले में आए पर्वेक्षक भी मन बनाकर आए थे की संयोजक "समाजवादी जन परिषद" का ही बनाना हैं। राजनीतिक चाल में माहिर वे लोग गठन के दिन संख्या बल के लिए अपने दल के कई लोगों को बुलाए हुए थे। आन्दोलन के कई साथी उनके वर्चस्व को देखकर चले गए थे। मैनें समझाने की कोशिश की पर वे धौर्य नहीं रख सके। अलोकतांत्रिक तरीके से कमिटि में 90 % तथाकथित समाजवादियों का नाम लिख कर मेरी राय जानने के लिए मेरे पास लाया गया था। मैने पार्टी कार्यकारणी का पार्टी पद लेने से मना कर दिया था और एक कार्यकर्ता के रूप में ही काम करने का निश्चय सुना दिया था। मेरी राय लेना उनकी मजबूरी थी क्योंकी आन्दोलन के समय से स्थानीय लोग स्थानीय अन्ना मुझे ही जानते हैं। मैनें एक समाधान दिया की 3 सदस्य योगेन्द्र जी की पार्टी "समाजवादी जन परिषद" से 3 "इंडिया अगेन्सट करपरशन" से तो अन्य 4 समाज में सक्रिय अन्य लोगों को कार्यकारणी में रखा जाए। तथाकथित लोकतांत्रिक तरीका न तो उनका था न ही मेरा। संयोजक पर्वेक्षक ने ही तय कर दिए जो उनकी पार्टी से ही थे। हमारे जिला के बगल में कैमूर जिला है, जिसके पर्वेक्षक भी वही व्यक्ति थे और वहाँ भी उन्होंने अपने खास लोगों को कमिटि में मुख्य पद दिया। संयोजक का नाम वे यहाँ भी पहले से तय करके आए थे।
मैं हर पार्टी के अच्छे लोगों का स्वागत करता हूँ। उनकी पार्टी के एक व्यक्ति ने मेरे यहाँ आन्दोलन में अच्छा काम किया था, पर वे नहीं आए, पुरानी पार्टी के लोगों का विश्वास तोड़ना उन्हें अच्छा नहीं लगा। ऐसे लोगों से मैं कहता हूँ की देश दल से बड़ा है पर वे देशहित छोड़ देते हैं, दल और पद का मोह नहीं छोड़ पाते। अपने लोकतंत्र की यह एक लोकतांत्रिक बिमारी है। जिन लोगों को नहीं आना चाहिए वे अवसरवादी चले आते हैं। अर्थात योगेंद्र यादव जी और उनके कुनबे का मकसद धिरे धिरे "आप" पर कब्जा करने का था, और कई जगह वे पद पोस्ट कब्जा करने में सफल हो भी गए हैं । खासकर बिहार में उन्होंने अपने नजदीकी श्री अजित झा जी को पर्वेक्षक बना कर भेजा था। वे पर्वेक्षक न रहकर मालिक हो गए और सब जगह अलोकतांत्रिक तरीके से अपने लोगों को काबिज कराते गए। बिहार के चुनाव कम्पेन कमिटि के संयोजक श्री शोमनाथ त्रिपाठी जी उनके खास आदमी थे, जिन्हें मैं इतना पूराना कार्यकर्ता और लोकसभा उम्मीदवार होने के बावज़ूद पहचानता तक नहीं हूँ। मेरा कोई परिचय अभी तक उनसे नहीं हुआ है। ऐसे लोग कार्यकर्ता और लोकतंत्र की दुहाई दे रहे हैं। मुझे टिकट नहीं मिले इसके लिए इनके गूट ने पूरी कोशिश की बाद में मेरे बारे में अपराध से संबंधित गलत सूचना को भी प्लांट होने दिया जिसके कारण अनजाने में मनीष जी को टिकट वापस लेने की घोषणा करनी पड़ी थी जो मेरे आन्दोलन की सच्चाई जानने के बाद नहीं लिया गया। परन्तु मेरे चुनाव पर इसका बहुत बूरा प्रभाव पड़ा। बिहार के पर्वेक्षक और पदाधिकारियों ने जानबूझकर पूर्वाग्रह के कारण सही समय पर सही सूचना केन्द्रीय पदाधिकारियों तक नहीं पहुँचाई।
जाहिर हैं हम आंदोलनकारी थे हमें राजनीति नहीं आती थी । हम सोचते थे ये लोग हमें राजनीति में अपने अनुभव का लाभ दिलाएँगे पर हमें यह नहीं पता था की ये ओछी राजनीति हमीं पर आजमएंगे। ये लोग आम आदमी पार्टी में रह कर भी "आप" के नहीं हो सके, ये "आप" के अन्दर समानांतर "समाजवादी जन परिषद" भी चलाते रहें । योगेन्द्र जी ने "सजप" के अपने कर्मठ साथी के साथ भी धोखाधड़ी की वे खुद पार्टी छोड़कर ही नहीं आए बल्कि संभवतः 90 % नेताओं को भी तोड़-फोड़ कर ले आए ताकि अपनी संख्या बल से "आप" पर कब्जा जमा सकें और अपना स्वार्थ सिद्ध कर सकें। उनकी पार्टी के नेता ले॰ सुनिल की आदिवासियों के बीच रहकर जीवन भर की गयी तपस्या को इन्होंने अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए लूट लिया। अप्रैल 2014 में संभवतः इसी सदमें के कारण ले॰ सुनिल का ब्रेन हेमरेज कर गया और अधूरे सपनों के साथ वे दुनियाँ से विदा हो गए। "समाजवादी जन परिषद" से संबंधित फेसबुक पेज और वेबसाइटें देखकर उसकी दयनीय दुर्दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। PAC से निकाले जाने के बाद योगेंद्र जी ने कहा था की " न छोड़ेंगे, न तोड़ेंगे, सुधरेंगे और सुधारेंगे "। उनका यह वक्तव्य मुझे बहुत अच्छा लगा था। पर जब मैनें उनकी पिछली पार्टी के साथ किए गए बर्ताव की जाँच की तो पाया की इन्होंने एक पार्टी छोड़ा भी है और उसे बुरी तरह तोड़ा भी है। टी॰वी॰ और अखबारों में उनके ब्यानों से स्पष्ट होता है कि वे सुधरने वाले भी नहीं हैं। अरविंद जी पार्टी कमिटियों को सुधार कर पुनर्गठन करना चाह रहे थे तो इन्होंने विरोध किया अर्थात ये दूसरों को सुधारने देना भी नहीं चाहते।
एक वाकया पटना की है जिस दिन मिशन विस्तार की पहली मिटिंग थी उसी दिन योगेंद्र जी किशन पटनायक जी की जयंती या पुण्यतिथि पटना में ही मना रहे थे जो पार्टी का कार्यक्रम नहीं था । पर्वेक्षक की टीम आकर बैठी हुई थी और पार्टी के पदाधिकारी लोग उस कार्यक्रम में थे। पर्वेक्षकों में से एक श्री आनंद कुमार जी की ट्रेन लेट बताई जा रही थी। अब तो उसमें भी हमें चाल नजर आती है। उन्हें जानबूझकर देर से आने के लिए कहा गया हो सकता हो।
"आप" में सामिल "सजप" के लोग अकसर व्यक्तिवाद की आलोचना करते रहते हैं। सीधे - सीधे अरविन्द पर वार करने की हिम्मत नहीं होने के कारण तथाकथित समाजवादी लोग कुटिल थोथा और खोखला सिद्धान्त का सहारा लेते हैं जिसका अनुपालन वे खुद नहीं करते। मेरे पास सवारी के नाम पर साइकिल है जिसमें अरविंद जी का फोटो लगा "आप" का झंडा स्थाई रूप से लगा हुआ है, जिसपर "सजप" से "आप" में आए एक व्यक्ति का कहना है की मैं व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रहा हूँ। "आप" में आए "सजप" के लोग अपने बैनर, पोस्टर, पंपलेट और विजिटिंग कार्ड में एक तरफ अरविन्द का फोटो लगाते हैं तो दूसरी तरफ योगेन्द्र का। उनके हिसाब से अरबिन्द का फोटो लगाना व्यक्तिवाद है और योगेन्द्र का फोटो लगना समाजवाद। इनका सोंच कितना खोखला, दोगला और हास्यास्पद है यह इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
दिल्ली चुनाव में मैंने एक कार्यकर्ता के रूप में दोनों विधान सभा चुनावों में भाग लिया था। इस बार 11-01-2015 को मेंनें पार्टी केन्द्रीय कार्यालय को रिपोर्ट कर दिया था। 12 और 13 जनवरी को केन्द्रीय कार्यकर्ता टीम के साथ विभिऩ्न मेट्रो स्टेशनों के पास पर्चे बाँटने का काम किया। मैंने अपने लिए कोई खास विधानसभा में काम करने के लिए कोई आग्रह नहीं किया था। मैनें पार्टी कार्यालय में बता दिया था कि मुझे किसी भी विधानसभा में भेजा जा सकता है। इस दौरान तिमारपुर विधानसभा में काम कर रहे श्री अभिषेक गुप्ता जी जो बिहार के लिए सह-पर्वेक्षक भी बनाए गए हैं, ने फोन कर तिमारपुर विधानसभा में आने का आग्रह किया और कार्यालय से भी उन्होंने बात की। मुझे कहीं भी काम करना था इसलिए मैं तिमारपुर चला गया। एक - दो दिन काम करने पर पता चला कि "आप" के अंदर परदे के पीछे चल रहे योगेन्द्र गुट के ही विधायक पहले जीते थे पर जनता का काम ठीक से उन्होंने नहीं किया था, इसलिए उन्हें बदलना पड़ा था। इस बार भी अलोकतांत्रिक तरीके से ही योगेन्द्र जी ने तथाकथित समाजवादी गुट से ही उम्मीदवार अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर खड़ा कराया था। जहाँ भी मैं जाता था लोग स्थानीय पुर्व विधायक की शिकायत करते थे। पुर्व स्थानीय कार्यकर्ता में भी बहुत सारे नराज थे। पर केजरीवाल का नाम और काम, उम्मीदवार, बाहरी और स्थानीय कार्यकर्ताओं का सम्मिलित जीतोड़ मेहनत रंग लाई और और हम चुनाव जीत गए। उस विधानसभा क्षेत्र में "सजप" के पुर्व नेताओं और कार्यकर्ताओं का जमावड़ा लगा था। अंतरंग बातचीत में अरविंद के प्रति उनके गलत सोंच सामने आते थे। चुनाव जितने के बाद विधायक जी को मंत्री बनवाने के लिए भी पैरवी की बात चली थी। चुनाव प्रचार में उम्मीदवार और खुद योगेंद्र जी भी अरबिंद केजरीवाल का नाम खूब भूनाते थे। जिस प्रकार मोदी जी लोकसभा चुनाव में मंच से बोलते थे "अच्चे दिन" तो जनता बोलती थी "आएँगे"। वैसे ही योगेन्द्र जी बोलते थे "पाँच साल" जनता बोलती थी "केजरीवाल"। वे जानते थे कि जो भी वोट मिलना है वह केजरीवाल के ही नाम पर मिलना है। दिल में केजरीवाल नहीं होने पर भी राजनीतिक स्वार्थ के लिए मुँह से केजरीवाल ये लोग जरूर बोलते थे। दलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में नंबर का खेल हमें ऐसे ढोंगी लोगों के साथ भी मेल रखने को मजबूर करता है और इसी मजबूरी में पार्टी का नंबर बढाने के लिए मैंने पूरी ताकत से एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह वहाँ काम किया। प्रशान्त भूषण जी अघोषित रूप से प्रचार का बहिष्कार कर रहे थे पर चुनाव प्रचार में वे तिमारपुर विधानसभा में सभा करने गए थे। वर्तमान प्रकरण में योगेंद्र जी और प्रशान्त जी का सांठ-ग़ांठ सामने आने के बाद यह स्पष्ट हो गया की वे पहले से ही अलग खिचडी पका रहे थे।
योगेन्द्र जी और प्रशान्त भूषण जी ने जो संयुक्त पत्र जारी किया है उसमें कार्याकर्ताओं का मनोवैज्ञानिक शोषण करने के लिए घडियाली शुभचिन्तक बनने की कोशिश की है। आन्दोलन के समय ही हम सभी भ्रष्टाचार के नए नए खुलासे कर रहे थे। उसी क्रम में 2012 में जब पार्टी का अस्तित्व भी नहीं था मैंने भी अपने यहाँ पावर ग़्रिड और उसके ठिकेदार के भ्रष्टाचार का एक मामला पकड़ा था। सब जगह सिकायत और आन्दोलन करने के बावजूद आजतक वे बचे हुए हैं । उलटा मुझे ही आपराधिक मामलों में फसा दिया गया। सारे मामले को सबूत के साथ उस समय मैनें प्रशान्त जी को ईमेल कर मैसेज भी किया था। पर कार्यकर्ताओं के हितों की बात करने वाले प्रशान्त जी ने मेरी कोई कानूनी मदद नहीं की। चुनाव में मेरे खिलाफ पेड न्यूज और चुनाव आयोग के पक्षपात का भी मामला बना था। इस पर भी प्रशान्त जी ने मेरी मदद नहीं की। 2014 में भी सड़क कंपनी और एन॰एच॰ए॰आई॰ के साथ सांठ-गांठ कर की जा रही लूट के खिलाफ आवेदन देकर आन्दोलन कर रहा था तब भी मेरे और पार्टी के अन्य स्थानीय साथियों पर झूठा मुकदमा दायर कराया गया। इससे संबंधित सभी प्रमाण सहित अभी के चुनाव के बाद भी मैं उनसे व्यक्तिगत रूप से उनके सुप्रीम कोर्ट के चेंबर में मिला था, यहाँ भी मेरे आवेदन को एक जूनियर को दिलवा कर मुझे बहला गए। वकालत उनका पेशा है और मेरा काम करने के लिए वे बाध्य नहीं है परन्तु कार्यकर्ताओं की जब वे मदद नहीं कर सकते तो शुभचिन्तक होने का दिखावा और लच्छेदार लुभावने बात भी न करें।
प्रशांत जी और योगेन्द्र जी लोकतांत्रिक मूल्यों, जनमत संग्रहों, सत्ता के विकेन्द्रीकरण आदि के सचमुच हिमायती हैं तो "वर्तमान परिस्थिति में उन्हें दल में रखा जाए या बाहर किया जाए" पर दिल्ली में जनमत संग्रह कराकर दिखाएं। यह एक कार्यकर्ता की उनके लिए चुनौती हैं। मैं यह नहीं कहता की आन्दोलन और पार्टी को अबतक जितने लोग छोड़कर गए हैं उनका आन्दोलन और पार्टी में योगदान नहीं था या नहीं है, पर उस योगदान के पीछे की नियत ठीक नहीं थी। जैसे जो लोग "भाजपा" में चले गए वे कहें की वे सच्चे मन से आंदोलन या पार्टी के मुद्दों से जुड़े थे तो, यह उनका ढोग था अब किसी को बताने की जरूरत नहीं। हाँ, जो लोग किसी दल या आवाम जैस छलक्षद्म वाले संगठन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नहीं गए उनकी नाराजगी विचारणीय है। कुछ लोग मेरे इस नोट के आधार पर मोदी भक्त की तरह केजरीवाल भक्त की संज्ञा देना चाहेंगे पर मेरे फेसबुक नोट में ही 2 पुराने नोट "आत्ममंथन" शीर्षक नाम से पड़े हुए हैं जिसमें से एक बाबा रामदेव के विषय पर थे और दूसरा शिवेंद्र सिंह चौहान के प्रकरण पर है, जिसे हमनें उस समय की परिस्थिति के अनुसार अरविन्द भाई की आलोचना में लिखे थे और उन्हें भी ईमेल किया था। पर कालांतर में अरविंद भाई का निर्णय सही साबित हुआ और मेरी आलोचना गलत। इस वक्त भी कई साथियों को अरविंद भाई का निर्णय गलत लगे पर भविष्य में वह सही साबित हो जाएगा, ऐसा मैं अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।
अभी भी बहुत सारी बात और राज लिखने बाकी हैं पर यह नोट पहले ही काफी लम्बा हो चुका है। सभी साथी चिंतन-मनन करें जनता की राय लें और "आप" में सुचिता, पवित्रता और तत्परता लाने के लिए त्वरित निर्णय एवं कठोर कार्यवाई की माँग राष्ट्रीय संयोजक के समक्ष रखें। "मिशन विस्तार" के तहत "आप" में अच्छे और सच्चे लोगों को जोड़ने का सिलसिला जारी रखें। गलती से कोई गलत आ भी जाए तो चिन्ता न करें । इस पार्टी को परवरदिगार परमेश्वर चला रहे हैं, हम सब को तो सिर्फ माध्यम होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। गलत नियत वालों को ईश्वर बेनकाब करते रहेंगे और वे जाते रहेंगे, सच्चे नियत वाला ही टिका रह पाएगा।
जय हिन्द!
"आप" का स्वयंसेवक (कार्यकर्ता)
ग़ुलाम कुन्दनम् ।
9931018391.