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Sunday, October 10, 2010

सप्तशती


रोम-रोम में तूं ही व्याप्ति,
रक्षा करती कवच की भांती।
शक्ति सिद्धि देने वाली,
तूं ही दुर्गा तूं ही काली।

तूं ही हौआ तूं ही मरियम,
हमें सिखाती सुन्दर संयम।
तूं ही गीता तूं ही कुरान...,
विद्या दे बढ़ाती मान।

तूं ही गौ हो तूं ही धरती,
हमसब में चेतना भरती।
क्षमा शील हम बन जाते,
स्वाहा स्वधा नमोअस्तु ते ।

दिया तुमने सब कुछ,
जो भी है हमने कही,
रूपं देहि जयं देहि,
यशो देहि द्विषो जहि।

मेरे शत्रु और सैतान,
बैठे मन में या मैदान,
तेरा नाम मन में लाते,
क्षण में कोसो दूर हो जाते।

जो कुछ मेरे पास है,
सबकुछ तुने ही तो दी है,
बस तेरा ही तो आस है,
पालन पोषण तुने ही तो की है।

राक्षस हो या सैतान,
तोड़ती तूं उनका अभिमान।
हर बार तुने उनको मारा,
जीता तुमने हर संग्राम।

हर गुण शक्ति में तूं रहती,
सर्व गुण शक्ति संस्थिता,
नमस्तस्यै ! नमस्तस्यै !
नमस्तस्यै ! नमो नम: !!

सभी विद्या में तूं ही रहती,
स्त्री रूप में तूं ही चलती,
तेरी हम स्तुति करते,
नारायणी! नमोअस्तु ते।

तुमसे ही सब शक्ति पाते,
राम रहीम या कृष्ण करीम,
हमें भी उर्जा तुम्ही दोगी,
अहम् सरणं परमेश्वरिम।

तुने ही सिखलाया हमें,
लगा लो मानवता को गले।
सबका सुख चाहें हमसब,
बोल उठे सर्वमंगल-मंग्ल्ये।

आवाहनं न जानामि ,
न जानामि विसर्जनम,
माफ़ करना मां ,
दर पे ग़ुलाम कुन्दनम।


-ग़ुलाम कुन्दनम।

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