गाँव का गन्ना,
चने की कचरी,
बधार में, किसी की,
दुह ली बकरी।
नमक मसाला लेकर जाते,
मेढ़ पे बैठ टमाटर खाते।
ताज़ी - ताज़ी ककड्डी खीरा,
ला देते थे खटिक "हिरा" ।
खाते थे हम ताड़ का "खुजा",
मीठा था ललमी-तरबूजा।
गधे को खूब दौड़ाया,
भूल हुई, दुलत्ती खाया।
बरसाती-नदी में दिनभर कूदे,
किनारे पे ही लगने डूबे।
घुमने जाते काली बाड़ी,
एक बार चखी थी ताड़ी।
नई-नई चप्पल खो ही जाती,
दौड़ लगाते फट गयी ऐंड।
बाग-बगीचों के साथ मेरा
पहाड़ी पर था एक पेंड़।
अक्सर मैं वहाँ पर जाता,
डाल पर बैठ हवा खाता।
मित्रो की जब टोली जुटी ,
उखाड़ लाते हम संजीवन बूटी।
स्कूल था अपना, बरगद के निचे,
बोरा बिछा, स्लेट पे लकीरें खिचे।
नींद पड़े तो पड़ती मार,
बोलें तब "दू का दू , दू दुनी चार"।
टन-टन घंटी बजती,
हमारी गाड़ी तब क्यों रूकती।
बोरा बस्ता ले घर जाते,
माँ को सारी बात सूनाते।
लिख रहा मैं खोले इन्टरनेट,
याद आ गयी आपसे होते भेंट।
-ग़ुलाम कुन्दनम,
सिटिज़न ऑफ़ आजाद हिंद देश (पाकिस्तान+इंडिया+बंगलादेश)
Tuesday, September 7, 2010
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