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Friday, September 17, 2010

क्या गाँधी जी दलित विरोधी थे?

प्रिय दीपा बहन,
नमस्ते!
स्व-कर्म और स्व-धर्म सीखना सरल होता है, इसे गाँधी जी ही नहीं , संत बिनोबा भावे ने भी कहा था. यदि कोई अतिरिक्त योग्यता रखता हो और अन्य क्षेत्र में अभिरुचि रखता हो तो उसे नए क्षेत्र में जाने से कौन रोक सकता है. काम कोई भी बुरा नहीं होता जबतक उससे किसी दुसरे इन्सान को या प्राणी को दुःख न पहुंचे. किसी काम को छोटा और किसी काम को बड़ा नहीं कहा जा सकता, सबका अपना-अपना महत्त्व है, मन अच्छा बुरा होता है, सोंच अच्छी बुरी होती है। किसी भी बात का अर्थ, अर्थ करने वाले व्यक्ति की भावना, ज्ञान, और रूचि पर निर्भर करता है. एक उदहारण पेश है –

मेरे क्षेत्र में एक संत हुआ करते थे। उनसे एक व्यक्ति ने कहा तुलसीदास महिला और दलित विरोधी थे , उन्होंने महिलाओं को प्रताड़ना के योग्य कहा है - "सुद्र गवार ढोल पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी।" शायद आप भी ऐसा ही इत्तफाक रखती हैं। सामान्य आदमी यही अर्थ समझता है। परन्तु तुलसीदास ने किस भाव से यह बात लिखी थी कौन जनता है? हमारे संत महोदय का जबाब था - [ताड़न का अर्थ प्रताड़ना नहीं होता है। जैसे हम किसी बात को अनुमान से, बुद्धि से, समझ जाते हैं तो कहते हैं "मैं तो बात पहले ही ताड़ गया था यानि समझ गया था। " इसी प्रकार तुलसीदास का कहना था की ढोल, गवार, सुद्र, पशु तथा नारी से समझ बुझ कर व्यव्हार करना चाहिए। तत्कालीन व्यवस्ता में सुद्र, गवार, और नारी पशु के समान शिक्षित नहीं थे। ढोल को समझ बुझ कर बजाने से सुर ताल में स्वर निकलते हैं जबकि पीटने से तो बेसुरा शोर हो जायेगा।]

मेरी एक गाय थी. वह दूध निकालते समय बिदक जाती थी, डराने, डंडा दिखने, मारने से कुछ समय खड़ी रहती फिर वैसे ही करने लगती. दूध भी कम देती तथा गिरने की भी सम्भावना बनी रहती, परन्तु कोई उसे सहलाता रहता तो आराम से ज्यादा दूध देती थी। तुलसीदास ने ऐसे ही व्यवहार के बारे में सुझाया है।

हमारे समाज के कुछ सियासत और लालच में फसे मौलाना लोग कहते है कि "दुसरे मजहब के लोगों को भगाना, उनको मारना, उनपर जबरन इस्लामिक कानून थोपना, उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए मजबूर करना ये सब जेहाद का हिस्सा है। लेकिन मैं कहता हूँ कि इन्सान के अन्दर में खुदा और सैतान दोनों रहते हैं। अल्लाह ने अपने अन्दर के सैतान से लड़ने को जेहाद कहा है। अर्थात "जेहन कि बुराइयों से लड़ना ही जेहाद है।" अब आप ही अपनी अंतरात्मा/ खुदाई से पूछिये किसकी परिभाषा सही हैं, जेहाद के नाम पर निर्दोषों कि हत्या करनेवालों की या मेरी।

अब मूल विषय पर आते हैं वर्ण व्यवस्था खुले सोंच, कर्म में विश्वास रखने वालों के लिए सही है तथा जातिगत संकृण विचार रखने वालों के लिए गलत। कर्म के अनुसार चलें तो गाँधी, बिनोबा, मदर टेरेसा आदि सभी समाज सेवी, कुष्ट रोगियों की सेवा करने वाले शुद्र हैं क्योंकि उनका कर्म और धर्म सेवा था, उनके साथ काम करने वालो को उनके परिवार के लोगो को उक्त कार्य को आजीविका के रूप में भी अपनाना सरल था क्योंकि वे यह सब बचपन से देखते और करते आ रहे थे। उन्हें उस काम को कही सिखने या पढ़ने नहीं जाना था। वर्ण व्यवस्था में किसी को रोजगार के लिए मारे-मारे नहीं फिरना था। आज हम २५ वर्षों - ३० वर्षों तक पढाई करते हैं उसके बाद भी निर्णय करना मुस्किल होता है कहाँ कौन सी नौकरी करे , कौन सा व्यापार करे। शिक्षा के अनुरूप नौकरी या व्यवसाय न मिला तो नए काम को सिखने में फिर से समय, धन और श्रम खर्च करना पड़ता है ; अनेक तरह की समस्याएं आती हैं जो आज के समाज में आम बात हो गयी है। वर्ण व्यवस्था में अपना रोजगार ढूढने या सिखने कही जाना नहीं था उसमें बचपन से ही महारत हासिल थी। अत: वर्ण व्यवस्था गलत नहीं है किसी काम को छोटा देखने का हमारा नजरिया गलत है। उसे जातिगत रूढीवाद के निगाह से देखना गलत है। वर्ण व्यवस्था में ऐसा नहीं है की कोई योग्यता होने पर दुसरे वर्ण में नहीं जा सकता, यदि कोई दुसरे वर्ण के अनुसार कार्य करने लगता है तो वह कर्म के अनुसार नए वर्ण का हो जाता है।

जहाँ तक बंद और हड़ताल की बात है, आजादी के लिए, अंग्रेजों के शोषण से मुक्ति के लिए बंद या हड़ताल करना उंचित था, हलाकि बंद या हड़ताल से आम लोगों को परेशानी होती है, आर्थिक नुकशान भी होता है, पर आजादी मिलने से सभी का भला होता। भंगियों की हड़ताल आज के कर्मचारियों की तरह सुविधाएँ बढ़ाने या वेतन बढ़ाने के लिए थी जिससे आम नागरिको को नुकसान छोड़ कर कोई फायदा नहीं था। आज जो हड़ताल या बंद किये जाते हैं चाहे वो राजशाही द्वारा किया गया हो या नौकरशाही द्वारा स्वार्थ के लिए किये जाते हैं, इससे उनका तो भला होता है पर देश का करोड़ो का नुकसान हो जाता है, नागरिकों को नुकसान और असुविधा अलग से होती है। कितनी और कैसी - कैसी परेसनियों से गुजरना पड़ता है आम जनता ही जानती है। कितने रोगियों की मौत हो जाती है, उसकी जिम्मेवारी हम लेते है? अत: हड़ताल और बंद का आह्वान करने वाले देशद्रोही से काम नहीं हैं। अपने लालच के लिए अंग्रेजो का साथ देने वाले सामंतो के सामान हैं। अपनी सुविधाओं और मुनाफे के लिए दूसरों को संकट में डालना कहा तक उचित है?

अभी मेरे क्षेत्र में कर्मचारियों की हड़ताल चल रही है। मैं अनुमंडल कार्यालय गया था, कुछ नवयुवक परेशान दिख रहे थे। मैंने पूछा तो पता चला की उन्हें जाति और निवास प्रमाण पत्र बनवाने थे, सेना में बहाली के लिए हमलोगों का चयन हो गया है। प्रमाण पत्र वैसे भी पैसे खर्च करके ही बनवाने पड़ते हैं हम ज्यादा पैसे देकर भी प्रमाण पत्र चाहते है, हमारे जीवन का, कैरियर का सवाल है। आप बताएं उन लड़कों का जीवन बर्बाद हुआ उसकी जेम्मेवारी क्या कर्मचारी लेंगे? अस्पतालों में डाक्टरों की हड़ताल की वज़ह से मरीज़ मर जाते हैं, क्या डाक्टर उसकी जिम्मेवारी लेते हैं? हड़ताल से देश का करोड़ो का नुकसान होता है क्या उसकी भरपाई आप करेंगी? आज़ादी के लिए किये गए हड़ताल और स्वार्थ के लिए किये जाने वाले हड़ताल में बहुत फर्क है। अत: भंगी हों या उच्च अधिकारी वेतन और सुबिधाओं के लिए हड़ताल करना देशद्रोह है, पाप है, अनुचित है। उन्हें अपनी मांगों के लिए न्यायलय जाना चाहिए या बिरोध करने के लिए बिना काम बंद किये काली पट्टी बांध कर अपने कर्तव्य का भली भाति निर्वाह करते हुए विरोध करना चाहिए ताकि देश का, नागरिकों का, कोई नुकसान न हो। मैं समझता हूँ गाँधी जी का भंगियो के हड़ताल का समर्थन न करने का कारण आपको समझ में आ गया होगा।

इन बातों से स्पस्ट है कि किसी तथ्य की व्याख्या लेखक के विचार पर भी निर्भर करती है।
हर इन्सान से भूल होती है। गाँधी जी से सिर्फ एक भूल हुई थी। उन्होंने १९४७ में कहा था मेरे शरीर का दो टुकड़ा कर दो काट दो तब देश का विभाजन होगा। वे अपनी बात पर कायम न रह सके। नेहरु जी और जिन्ना साहब की पदलोलुपता (क्षमा चाहूँगा, यह कडवा संच है) की वज़ह से देश का विभाजन हुआ। गाँधी जी मौन रह गए। इस वज़ह से लाखो हिन्दू पाकिस्तान छोड़ कर भारत भागे तथा लाखो मुसलमान पाकिस्तान गए. कईयों की जान गयी, दंगे हुए। विभाजन के बाद हुए जान माल के नुकसान को देखते हुए नोवेल कमिटी ने गाँधी जी को नोवेल पुरस्कार नहीं दिया। जो क़ुरबानी उन्होंने १९४८ में दी वह १९४७ में देनी थी । पर उनकी क़ुरबानी मांगने वाले हम कौन होते हैं? उन्होंने हमसे कोई ठेका नहीं लिया था। बाकि नेताओं की तरह आज़ादी के बाद उन्होंने राजगद्दी भी नहीं मांगी।

अब गाँधी जी नहीं रहे वे अपनी गलती सुधारने जन्नत से स्वर्ग से फिर नहीं आ रहे। अब हमारी जिम्मेवारी बनती है की समाज में जो कुछ गलत है, अन्याय है, भेद है, पूर्व में हुई गलती है .... उसे मिटायें, सुधारें । अभी भी हम जर्मनी की तरह फिर से एक हो सकते हैं यदि हम और हमारे नेता धन इक्कठा करना छोड़ कर संच्चे मन से देश और इंसानियत / मानवता के लिए काम करना शुरू कर दें।

क्षमा करियेगा दीपा बहन! गाँधी जी के बारे में आपके विचार उतने ही वीभत्स हैं जितना की भ्रूण हत्या के विरोध में लगाया गया आपका चित्र। चार्स सोभराज, नटवर लाल की तार्किक शक्ति हमलोगों से ज्यादा थी पर उन्होंने उसका इस्तेमाल पोजेटिव वे में नहीं किया अगर किया होता तो वे आज महापुरषों के श्रेणी में होते। आपसे भी आग्रह है की आप अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रयोग समाज को सही रास्ता दिखने में करें, मेरी बात का बुरा न माने, अन्यथा न लें, अपमान न समझें। अगर आपको ऐसा लगे तो बताये, मैं अपनी छोटी बहन का पैर पकड़ कर माफ़ी मांगने देहरादून आ जाऊंगा ।

आपका अपना भाई,

ग़ुलाम कुन्दनम,

सिटिज़न ऑफ़ आजाद हिंद देश (पाकिस्तान+भारत+बंगलादेश)





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