मैंने सपने में देखा,
अदालत का फैसला आया।
हर कोई खुश था,
हर किसी को भाया।
न किसी की हार हुई,
न किसी की जीत,
न ही कोई दुखी था,
न ही कोई भयभीत।
इंसानियत की जीत हुई,
नफरत भयभीत हुई।
हमें छोड़ गयी सरारत,
जीता तो सिर्फ भारत।
कोई नहीं मायूस हुआ,
सभी के दिल खिले,
जो जहाँ पर है,
एक-दुसरे से गले मिले।
अयोध्या की ब्रम्ह बेला,
सपने में ही देखा मेला।
मस्जिद से आजान आई,
मानों, मेरे रूह में जान आई।
मस्जिद से निकलते ही,
मिला राम का चरणामृत,
ऐसा सौभाग्य किसे मिला,
आत्मा हो गई तृप्त।
मंदिर से निकलकर,
गुरूद्वारे पे खड़ा था।
मंत्र मुग्ध होकर घंटो,
माथा टेके पड़ा था।
सपने में ही नींद खुली तो ,
पहुँच चूका था गिरजाघर में,
अजीब सी शांति दिखी हमें,
क्रूश पे झूलते प्रभु इशु में ।
बुद्धं शरणम् गच्छामि,
मैंने भी भर दी हामी,
मिट गई मेरी हर हरारत,
सामने खड़ा था बौध इमारत.
बगल में जैन मंदिर दिखा,
चींटी को भी बचाना सिखा।
यहाँ सब संभल कर जाते है,
मानवता में किट-पतंग भी आते है।
दीन-दयालु पारसी भाई,
चले हमको साथ लेवाई,
आग पानी संच्चा हर पल,
पहुँच गया मैं फायर टेम्पल।
न जाने कितनी ईमारत,
देखि होती मैंने,
कमबख्त रात गुजर गयी,
नींद खुली सैनें सैनें।
धुप निकल आई थी,
फिर भी मैं सो गया।
फिर से उसी सुनहले,
सपनों में खो गया।
"!" कोई न जगाये मुझे,
आप करिए जो सूझे।
अगर ये हकीकत में आई,
मुझे जगा लेना भाई।
- ग़ुलाम कुन्दनम.
Friday, September 24, 2010
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