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Tuesday, August 24, 2010

थोड़ी कम थी अकल

चाँद सा सफ़ेद था तेरा मुखड़ा ,
चरणों में डाल दिया तुने दिल का टुकड़ा।

मेरे रास्ते के काँटों पर खुद ही बिछ जाती थी,
मेरे खातिर तुम कितना दुःख पाती थी।

पागल थी वो मुझे समझती थी अपना नाथ,
जहाँ भी जाऊ नहीं छोडती थी मेरा साथ।

उसने मेरा साथ निभाया मर-मर के,
पर उसपे मैं तो रहा बोझ बन कर के ।

तुम्हारे मोहब्बत की थी न कोई सानी,
मेरे ख़ातिर तुमने दे दी अपनी क़ुरबानी।

सब कुछ ठीक था पर थोड़ी कम थी अकल,
ओह कितनी प्यारी थी वो मेरी चप्पल।

-ग़ुलाम कुन्दनम,
सिटिज़न ऑफ़ आजाद हिंद देश (पाकिस्तान+इंडिया+बंगलादेश)
(मेरे किशोरावस्था की एक कविता)

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